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कविता

और पत्ते गिर रहे हैं इस तरह लगातार

उदय प्रकाश


एक

आप पत्रकार हैं
आप कहाँ से आ रहे हैं और कहाँ जा रहे हैं
क्या खबर है आपके पास और किसके लिए है वह खबर
आपकी आँखें कहाँ हैं और क्या वे आपकी ही आँखें हैं
और वह भूरा कत्थई-सा सिर
जिसे बचपन में आपकी माँ सहलाया करती थी कभी
वही सिर, जिसमें कुछ सपने, बचपन और इरादे हुआ करते थे कभी
मुहावरों के अनुसार जिसमें हुआ करता था कभी ईश्वर का वास

आप अपने हाथों को कभी पैंट की जेब में
कभी झोले में छुपा क्यों रहे हैं इस तरह
आप ज्यादातर सवालों पर चुप क्यों हैं इस तरह
क्या लोगों से छुपाने के लिए आपका भी है कोई अलग गोपनीयता कानून

आप इस खबर को उल्टा कर दीजिए
न कर सकें तो इन-इन जगहों पर प्रश्नवाचक चिह्न लगा दीजिए
तीसरे पैराग्राफ की जरूरत बिल्कुल भी नहीं है
सत्ता-पक्ष और विपक्ष दोनों को दीजिए बराबर का स्थान

लिखिए साफ-साफ कि स्वास्थ्य मंत्री चला रहे थे जब स्वास्थ्य शिविर
तो कई साल पहले मारा गया एक बूढ़ा रोगी कह रहा था
पाँच साल नहीं, सौ साल तक चलेगी यह सरकार
रहेगी यही पार्टी शायद ईश्वर का यही है विधान

और हाँ,
मल्होत्रा और मुरारीलाल के फार्महाउसों में
इसी हफ्ते आधी रात होनी हैं पार्टियाँ
ध्यान रहे... आधी रात... शून्यकाल
मुद्दा वही है - आजादी...

और सुनिए पंडिज्जी!
आपने संचार मंत्रालय से अभी तक नहीं निकलवाई
वह फाइल
पता नहीं कब तक रहें ठाकुर साहब और कब तक चले यह सरकार

हम सबके प्रधान नटवरलाल ने खरीदा है कई लाख का
प्लाट तो इस शुभ अवसर पर
हम कबीर की औलाद भी
लगा लें खुदा के नाम पर एक-आध घूँट

फिक्र बिल्कुल मत करिए
पक्की है आपकी नौकरी और मिलेगा
आपको ही शीर्ष स्थान।

दो

यह भी अंत नहीं है
यह आरंभ भी नहीं है

यहाँ से कोई ट्रेन बनकर नहीं चलती
कोई टर्मिनल नहीं है यहाँ

सुनो भाई अकबर!
सुनो भाई बिसनू!
सुनो भाई साधो!

यहाँ सिर्फ एक तेज सीटी बजती रहती है लगातार

बीच-बीच में सुनाई देता है कोई धमाका
और बजती रहती हैं लोहे की घंटियाँ
कुछ बत्तियाँ जलती-बुझती रहती हैं लाल और हरे रंग की
वर्षों से नियमित
किसी अदृश्य उद्देश्य के लिए लगातार

पैदल चलो भाई बिसनू !
पैदल चलो भाई अकबर !
पैदल चलो भाई साधो !!

तीन

राजधानी में सबसे ज्यादा रोशनी से जगमगाती सड़क पर
जब छा जाएगा आँखों के सामने अँधेरा अचानक
एक मारुति कार तेजी से स्टार्ट होकर गुजर जाएगी
अपराध, संस्कृति, आक्रामकता, राजनीति
प्रापर्टी, दलाली, सांप्रदायिकता, पत्रकारिता, हिंसा
सबका एक साथ बजता हार्न
पूरी पृथ्वी पर गूँजता-सा लगेगा उस आखिरी पल

एक ताकतवर संस्कृति अधिकारी अपनी स्टेनो से टेलिफोन पर करता
प्रेमालाप
जिक्र करेगा हिंदी में एक दंभी-दरिद्र कवि के
बीच सड़क पर
अचानक मर जाने का

स्टेनो कहेगी, "सर, मुझे भी करना चाहा था
उसने एक बार प्यार। लेकिन आपके कहने पर मैंने दी उसे नींद की गोलियाँ
अब किस का है इंतजार..."

पृथ्वीराज रोड के दोनों तरफ खड़े पेड़ों के पत्ते
गिरना शुरू करेंगे
कोई नहीं सोचेगा क्यों ऐसा हो रहा है
कि नहीं है यह हेमंत और पत्ते गिर रहे हैं इस तरह लगातार

कोई नहीं सोचेगा
कि सर्वोच्च न्यायालय से निकलता हुआ न्यायाधीश
काले कपड़े में बार-बार
क्यों छुपा रहा है अपना चेहरा
कालिख क्यों जमा होती जा रही है
संसद की दीवारों पर

कई दिन बाद सिर्फ एक अकेली और उदास लड़की
रवींद्र भवन के लान में खड़ी
पुश्किन की मूर्ति की आँखों को देख कर चौंक पड़ेगी आश्चर्य से अचानक
और पोंछना चाहेगी पसीने में भीगे अपने रूमाल से
उसके आँसू

फिर वह कहेगी - 'धत'
और उसे भी हँसी आ जाएगी


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